महानगरों में ग्रामीण लोगों और मजदूरों के साथ जो व्यवहार हुआ, उसने उनका दिल तोड़ दिया - अब अपना घर छोड़कर शहर नहीं जाएंगे मज़दूर
घोर अनियमितताओं की वजह से घर को लौटने को मजबूर हुए प्रवासी मजदूर
(साभार:-जुबली पोस्ट) देश के बड़े-बड़े औद्योगिक शहरों से मजदूरों के पलायन के बाद सरकारों से लेकर फैक्ट्री के मालिकों के सामने सवाल खड़ा हो गया है कि कोरोना संकट के बाद ये मजदूर वापस आयेंगे या नहीं? अनिश्चितताओं के इस दौर में न तो सरकारों को भरोसा है कि ये मजदूर शहर लौटेंगे और न ही फैक्ट्री मालिकों को। अब बड़ा सवाल कि ये नहीं आयेंगे तो क्या होगा?
भविष्य में रोजगार को लेकर ख़ुद मजदूर भी चिंता में हैं। फिलहाल अभी के हालात में उनके लिए अभी सबसे बड़ी मुश्किल जीवन और जीविका के बीच के चुनाव की है। 25 मार्च को देशव्यापी तालाबंदी के बाद से खबरों में कोरोना वायरस से ज्यादा दर-दर भटक रहे प्रवासी मजदूर हैं। रेलवे ट्रैक से लेकर सड़कों पर मजदूर भूखे-प्यासे दर-दर भटकने को मजबूर हैं। पलायन कर रहे मजदूरों की तादात कई करोड़ है। खुद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले दिनों ऐलान किया था कि सरकार आठ करोड़ प्रवासी मज़दूरों के लिए अगले दो महीने तक खाने का इंतजाम कर रही है। इसके लिए 3500 करोड़ रुपये की राशि का एलान किया। उनके मुताबिक राज्य सरकारों से मिले आंकड़ों के आधार पर हमारे यहां 8 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं।
इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिन राज्यों में बड़े-बड़े उद्योग धंधे हैं, वे सरकारें कितनी चिंतित होंगी। राज्य सरकारें ही नहीं बल्कि केंद्र सरकार को भी इसका डर है। चिंता इस बात की है कि अगर मजदूर वापस ना आए तो अर्थव्यवस्था का क्या होगा? डर इस बात का है कि अर्थव्यव्स्था पटरी पर नहीं लौटी तो राज्यों और देश का क्या होगा?
दिल्ली, महाराष्ट्र और पंजाब की बढ़ी मुश्किलें
सड़कों पर चल रहे मजदूर दूसरे राज्यों में सबसे ज्यादा खेतों में या फिर निर्माण कार्यों में मजदूरी करते हैं। वहां काम ना मिला तो फिर घरों और सोसाइटी में मेड और सुरक्षा गार्ड को तौर पर काम करते हैं। इसके आलावा एक बड़ा वर्ग कारखानों में भी काम करता है।
मजदूरों के पलायन से पंजाब में किसानों को मजदूर नहीं मिल रहा है। यहां खेतों की बुआई का काम शुरु होने वाला है। ऐसे में आने वाले दिनों में बड़ा संकट खेती पर आने वाला है, जिसका सीधा असर अनाज की पैदावार पर पड़ेगा।
एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में ऐसे मजदूरों की संख्या तकरीबन 25-27 फीसदी के आस-पास है, जबकि दिल्ली की आबादी करीब 2 करोड़ है। इसमें से तकरीबन 50 लाख लोग मजदूरी के काम में लगे हैं। इनमें से आधे यानी 25 लाख लोग भी चले गए गए तो दिल्ली का क्या होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
कुछ महीनों तक शहर जाने का इनका कोई इरादा नहीं
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में हर दिन सैकड़ों मजदूर पहुंच रहे हैं। मीडिया से बातचीत में अधिकांश मजूदरों ने यही कहा कि अभी हाल-फिलहाल कुछ महीनों तक शहर जाने का इनका कोई इरादा नहीं है। ये अपने ही गांव और आस-पास के शहरों और गांवों में रोजगार तलाशेंगे। नहीं मिला तब कुछ सोचेेंगे।
एक पखवारें तक हर पल जद्दोजहद करके गांव पहुंचे मजदूरों के चेहरे पर एक इत्मीनान है। अभी उन्हें न तो कोरोना का डर है और न अभी रोजगार की चिंता। अभी वह कुछ दिन अपने पैरों को आराम देना चाहते हैं।
दूसरे राज्यों से लौटने वालों में सिर्फ दिहाड़ी मजदूर ही नहीं है। बल्कि महीने के 30-40 हजार कमाने वाले लोग भी है, जो अपना कामधाम छोड़कर अपने घर लौट आए हैं।
वह कहते हैं कि कोरोना संकट के बाद इन महानगरों में ग्रामीण लोगों और मजदूरों के साथ जो व्यवहार हुआ, उसने उनका दिल तोड़ दिया। अब अपना घर छोड़कर नहीं जाऊंगा। वहीं रमेश तिवारी, जो दिल्ली में एक निजी कंपनी में नौकरी करते थे। तालाबंदी ने उनकी नौकरी ले ली तो अब उन्होंने गांव में ही कुछ रोजगार करने का निश्चय कर लिया है। वे फैक्ट्री काम करते थे। उन्हें रोज दस घंटे से ज़्यादा काम करना पड़ता था। हर माह उनके हाथ में 35 हजार रुपए आते थे।